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बनारस के साझा संस्कृति के इतिहास से निकला ''नवदलित आंदोलन'' को वाराणसी के गाँवों से लेकर दुनिया के दूसरे कोने पेरू तक लोगों ने रंगभेद विरोधी संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस (21 मार्च, 2012) पर मोमबत्ती जलाकर नवदलित आंदोलन का समर्थन किया। सबसे पहले फिलीपीन्स की सुश्री दीवाई (Deewai Rodriguez) एवं जर्मनी के श्री इलियास स्मिथ (Mr. Elias Smidth) ने मोमबत्ती जलाई। नव दलित आंदोलन को विश्व बौद्ध संघ के कार्यकारी अध्यक्ष श्री राजबोध कौल, दलित राजनैतिक नेता उदितराज, आदिवासी नेता दयामनी बारला, फोटोग्राफर एलेसियो मेमो (Alessio Mammo), स्वतंत्र फिल्मकार जायगुहा सहित समाज के सभी तबकों ने समर्थन दिया हैं। लंदन के प्रवासी भारतीय श्री मरियन दास ने कहा है कि ''नवदलित आंदोलन धर्मनिरपेक्ष एवं सभी को जोड़ने वाला है।''
भारत के करीब 70 स्थानों पर नवदलित आंदोलन के समर्थन में लोग इकठ्ठा हुए और वाराणसी के 5 ब्लाकों के तकरीबन 700 लोगों ने हिस्सा लिया एवं अभी तक दुनिया के तकरीबन दस देशों में समर्थन मिला।
इसी क्रम में आज 22 मार्च, 2012 को वाराणसी के पराड़कर स्मृति भवन में मानवाधिकार जननिगरानी समिति व सावित्री बाई फूले महिला पंचायत के संयुक्त तत्वाधान में महिला सम्मेलन के अवसर पर नव दलित आंदोलन को महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में चर्चा किया गया। सम्मेलन में महिलाओं ने नव दलित आंदोलन पर बनारस-प्रस्ताव पास किया।
सम्मेलन की शुरूआत भारत की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्री बाई फूले के तस्वीर पर माल्यापर्ण और दीप जलाकार मुख्य अतिथि बिन्दू सिंह एवं विशिष्ट अतिथि नसरिन फातिमा रिजवी ने नव दलित आंदोलन पर महिला सम्मेलन का शुभारम्भ किया। कार्यक्रम के शुरूआत में बाल विवाह के खिलाफ पोस्टर एवं यातना व हिंसा मुक्त घर एवं कार्यालय की घोषणा के लिए स्टिकर का उद्घाटन किया गया। कार्यक्रम में शिरिन शबाना खान, कात्यायिनी सिंह, डा0 लेनिन ने अपना वकतव्य रखा। कार्यक्रम का संचालन श्रुति ने किया एवं सम्मेलन की अध्यक्षता मुख्य अतिथि बिन्दू सिंह ने की।
श्रुति ने कहा कि भारतीय सामन्ती समाज जातिवादी व पितृ सत्ता पर खड़ा रहा और आज भी उसके अवशेष 'न्याय में देरी या फिर अन्याय' पर खड़ा है। गाँवों में अभी भी अनेको लोग हैं, जो ''चुप्पी की संस्कृति'' के शिकार हैं। इसी अपपरम्परा को नवउदारवादी ताकतें आगे बढ़ाकर लोगों का श्रम, संस्कृति, कला व प्राकृतिक संस्थानों पर बेशर्मी से कब्जा कर रही हैं। लूटने वाली ताकते हमेशा लोगों को आपस में धर्म व जाति में बांटकर व लड़ाकर ''विभाजन'' के आधार पर अपनी सत्ता को बनाते हैं और कायम रखते हैं। विभाजन की राजनीति के खिलाफ एक ही विकल्प है-एकता!!
लुटेरों की एकता के खिलाफ हमारी एकता क्या होगी ? पहली एकता जातिवाद के खिलाफ। जातिवाद से ऐतिहासिक रूप से सताये गये जातियों की एकता एवं उनकी ऊँची जाति के प्रगतिशील लोग, जो जातिवाद के खिलाफ हैं, उनके साथ एकता। यह पहली तरह की एकता, जो न तो किसी ऊँची जाति में पैदा व्यक्ति के खिलाफ है और न ही किसी धर्म के खिलाफ।
शिरिन शबाना खान ने कहा कि साम्प्रदायिक फासीवाद एवं दंगे फसाद से टूटे हुए धार्मिक लोगों की एकता एवं साम्प्रदायिक सद्भाव व धर्मनिरपेक्षता पर विश्वास करने वाले सभी धर्मो की एकता-साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ, यह दूसरी तरह की एकता है।
नवउदारवादी नीतियों के कारण गरीबी से टूट रहे गरीबों की एकता-तीसरे तरह की एकता है। नवउदारवादी नीतियों के विरोध का अर्थ 'लोकतांत्रिक पूँजीवाद' का विरोध नहीं है।
टूटे हुए लोग का अर्थ दलित होता है इस तरह तीन तरह के लोगों की एकता ''नवदलित आन्दोलन'' है।
ग्राम्या संस्था की संस्थापिका सुश्री बिन्दू सिंह ने कहा कि राजनैतिक पार्टी के स्तर पर नहीं, बल्कि सामाजिक स्तर पर ''नवदलित आन्दोलन'' को खड़ा करके राजनैतिक दलों को जनता के पक्ष में मजबूर करना होगा।
लखनऊ की नसरिन फातिमा रिजवी ने कहा कि आज महिलायें लोगों से अपील करती हैं कि जातिवाद के खिलाफ प्रगतिशील लोगों की एकता, साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ धर्म निरपेक्ष लोगों की एकता व नवउदारवादी नीति के खिलाफ गरीबों की एकता की महाएकता-नवदलित आन्दोलन में शामिल होकर उसे न्याय, बन्धुत्व व अहिंसा के रास्ते से जनान्दोलन में तब्दील करें, तभी समाज व खासकर महिलायें हिंसा, यातना व अत्याचार से मुक्त हो सकेगी।
महिलाओं के भागीदारी के बिना अन्याय, शोषण, उत्पीड़न, अत्याचार एवं सम्प्रदायिकता के खिलाफ दीर्घ कालीन जन पहल खड़ा नही किया जा सकता है।
बनारस-प्रस्ताव को विभिन्न भाषाओं में अनुवादित कर उस पर बहस और समर्थन का कार्यक्रम लिया गया।
लोक विद्यालय के रूप में आयोजित महिला सम्मेलन में अम्बेडकर नगर, सोनभद्र, मुरादाबाद, मेरठ, अलीगढ़, मिर्जापुर, चंदौली, वाराणसी व कोडरमा-झारखण्ड जिले के 100 से उपर गांवों के प्रतिनिधि महिलाएं कार्यक्रम में भाग ली।
मुझे ये समझ में नहीं आता है कि ये इतनी प्रगतिवादी विचारधारा का आन्दोलन है. क्या उसमे दलित शब्द का प्रयोग करना जरुरी था? क्या आप उन लोगों में हमेशा ये अहसास बनाए रखना चाहते हैं की वो दलित थे, हैं और अनंत कल तक आप उनकी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते रहेंगे.
ReplyDeleteमुझे खुशी हुयी.... बहुत बढ़िया....
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